Sunday, August 24, 2008

~~~ Colors of Life ~~~

मुझे हमेशा लगता है की जिंदगी रंगो से भरी हुई हैऔर हम है की हर बार उसे सिर्फ़ काली रात के साथ जोड़ देते है. ऐसा ही कुछ सोचकर मैने पिछले दिनो कुछ रंगो को कॅनवॅस पर उतारा. जैसा सोचा था बिल्कुल वैसा तो नही बना पाई. पर कुछ आँखो को अच्छा लगे ऐसा तो बना पाई. नाम दिया है उसेकलर्स ऑफ लाइफ

हमेशा मुझे लगा की सबसे मासूमसबसे सच्चा और सबसे प्योर् बचपन होता हैजो बस अपनी थोड़ी सी यादे छोड़ जाता हैपर उसी की बिना पर हमारा आगे का जीवन सजता-सावरता या बिगड़ता है …. जिंदगी में प्यूरिटी बस उसी वक्त रहती हैजो की थोड़े कम वक्त के लिए ही होती है…..और आजकल के बच्चो पर बहोत तरस आता है …. उनके पास तो शायद बचपन है ही नही……मेरे लिए बचपन है सफेद रंग साकोमल और शुध्ध .

बचपन के साथ आती है खुशिया….थोड़े से बड़े हुए नही की लगता है की सूरज के सारी किराने हमारे लिए ही आई हैरोशनी देने के लिएहर जगह सब कुछ बिल्कुल चमकता हुआ नज़र आता है …. जो 6-8 साल की उम्र के बच्चे की आँखों में विस्मय के रूप में हमे नज़र आता है …..जहा देखो वहाँ धानी सा रंग खिलता नज़र आता हैथोड़ा सा शरारतीऔर बहोत ज़्यादा खुश….. मुझे पीले रंग ने हमेशा आँखो में सूरज भर के दिया है कोई …..

फिर बचपन अपनी दहलीज छोड़ के जाता है….जाने क्यू हर किसी को लाल रंग अचानक भाने लगता है …. जिंदगी का एक पूरा हिस्सा लोग अंजाने में भी उसकी तलाश में लगा देते है….मिल जाए तो हर चीज़ खूबसूरत लगती है और ना मिले तो …… किसी भी हालात में ये आप पर और आपकी पूरी जिंदगी पर एक असर छोड़े बिना नही जाता…..वैसे ये अलग बात है की किस पर कैसी असर छोड़ेगा ये कोई नही जानता..



फिर भी , ऐसा लगता है कुछ वक्त के लिए के जैसे हर कोई फुलो का गुल दस्ता लेके सामने खड़ा हैजिड़नगी जीने लायक लगने लगती हैमन सॉफ होता हैकाँच की तरहा निर्मलबिल्कुल वही दिखाता है जो की खुद होता हैकुछ छिपाता नहीमखमली सा कोई आहेसस आपकी रूह में उतार जाता है ….और फिर वो हर बार जब ज़रूरत हो, आपको छूकर जाता है ….. कुछ फूल.. कुछ पत्ते अपने अहेसास आपमें छोड़कर आपको भी उन जैसा बनके चला जाते है ……

जिंदगी में फिर शुरू होती है अपने आप को साबित करने की….या फिर आयेज बढ़ने की जद्दोजहत….हम पानी से उठके आसमान तक जाना चाहते है…..जब आसमान मिलता है तो पता चलता है की गला तो प्यास के मारे सुख रहा है …. अब पानी चाहिए…..कई बार मुझे आसमान और समंदर में कोई फ़र्क नज़र नही आता……मेरे लिए वो कई बार एक दूसरे के पूरक ही रहे है…..लॅंड एंड करके कुछ जगहे भी देखी हैजहा सब एक सा नज़र आता है .. कुछ ऐसा ही रिश्ता आसमान का पानी के साथ होगा ? दोनो मुझे भूरे रंगो में मुककमिल नज़र आते है …. काली रात वैसे भी किसे भाती है हमेशा?

कई बार सब कुछ मिलने के बाद भी ज़िदगी मैं कुछ अखरता रहेता है…..जो शायद कही पीछे छूट गयाया जिसे पाने की कभी कोशिश ही नही कि.. फिर …. जिसे कुछ पाने के ख्वाहिश में हमने कही छोड़ दिया…..अपनाया नही …. हमेशा मन वहाँ उखड़ा उखड़ा लगता है …. जब भी याद आता है वो दिल जैसे खुरदुरा हो जाता है ….. उसी भूरे रंग को मैने कई बार ऐसा भी महसूस किया है

और कई बार ये भी तो होता है …. अपने आपको किसी मंज़िल पर पहुचाने की लड़ाई करते हुए कभी ह्यूम अपना बचपन याद आता है …. यादो को कोई तितली आती है और चली जाती है …. दो पल में कुछ अपने में ज़िदा कर जाती है…..वही लम्हे जो बचपन की कोई शरात के साथ जुड़े होंगे ?

इन सब के बाद आता है एक ठहराव…. जिसे देखते ही शांति महसूस होती है …. भाग के उसकी गोद में चले जाने को मन करता है …. मैं निजी तौर पर ईश्वर से ज़्यादा उसकी बनाई प्राकूरती से ज़्यादा जुड़ी हू … .तो जब भी जंगल , पेड़ या हरियाली देखती हू, कोई सुकून मिलता हैसारी मुश्किलो के बावजूद उनके पास जाके मैं खुश रहे पाती हू …. मुझे लगता है एक उम्र के बाद शायद जिंदग़िमें ये ठहराव खुद ही आता होगा….जहा आँखे हर जगह हरा रंग भी ढूँढ ही लेगीलहलाहाता हरा रंग…. शांति का रंग….

जिंदगी रंगो से भरी पड़ी है …. और हमे सिर्फ़ उन्हे अच्छे से सवारना है …. पर हमारे हाथ ….कुछ अजीब सी हरकत कर जाते है….कई बार रंग एक दूजे में भर जाते हैऔर कुछ लोगो को सिर्फ़ काला रंग ही फिर नज़र आता है …..अपने हाथो कोअपने नसीब को खुद ही सवारो…..रंग हमे ढूँढते आएँगे.

Thursday, July 24, 2008

~~~ जिंदगी - भरोसे का सफ़र ~~~

जिंदगी मे कई बार ऐसा होता है कि आपके अपने आपका भरोसा तोड़ जाते है... और कुछ बिल्कुल अंजाने लोग बिना कोई वजह..एक ही मुलाकात मे आपके भरोसे को मजबूत कर जाते है....

ये तब कि बात है जब मैं पहेली बार ट्रेक पर अकेले गई थी.. उस से पहेले मैने जो ट्रेक किया था वो प्री-प्लान था... जब फिरसे गई तो सब कुछ मैने अपने तरिके से अरेंज किया ... कहा से आना है, कहा कहा जाना है.... ट्रेक था मेरा कुल्लू कि खूबसूरत पार्वती वॅली मे... सरपास ..साल था 2004 ...कुछ लोग अहेमदाबाद से मेरे साथ होने वाले थे जिनको मैं कभी मिली नही थी ...सिर्फ़ फोन पर एकाद - दो बार बात हुई थी .. सो उन्हिके साथ हम ट्रेक के बेस कॅंप पर पहुँच गये ...ट्रेक तो मेरा बहोत अच्छा रहा .. गोआ ट्रेक नही किया था तब तक वो मुझे सबसे बेस्ट लगा ..आज भी जब आँखे बाँध करती हू तो सबसे पहेले वही रास्ते नज़र आते है...

वेल ...बात ट्रेक कि नही है.. वापस आने के लिए दीनो कि गिनती मैने ग़लत कर ली थी सो एक दिन एक्सट्रा पड़ा था मेरे पास... और वहा पूछने पर पता चला कि कुछ 3 घंटे कि दूरी पर एक पैंटिंग कि आर्ट गॅलर्री है नगर करके
विलेज मे... देविकारानी जी के पति रोरिक निकोलस क़ी ...और बहोत अच्छी है...... और मैने तय कर लिया कि मैं वही चली जाउन्गि .... आने जाने के मिलाकर 7 घंटे और 1.5 घंटा देखने के लिए... तो आराम से शाम तक वापस आ जाउन्गि ... बताया गया कि सुबह कॅंप के पास से कुल्लू के लिए बस मिल जाएगी .. वहा से दूसरी बस मे नगर और नगर से रिक्शा मे आर्ट गेलरी.

दूसरे दिन सुबह मैने बस पकड़ी ... कुल्लू पहुचि ... फिर नगर के लिए बस खड़ी थी तो सिर्फ़ पानी लेके बैठ गई ... नगर के लिए बस अक्सर नही जाया करती तो मुझे सारी बस के टाइमिंग्स को फॉलो करना था ...नगर से कुल्लू वापस आने के लिए सिर्फ़ बस मिलती थी ..और लास्ट बस शाम को 4.00 बजे कि थी ...ये ध्यान मे रखकर मूज़े सब करना था....

कुल्लू पहुचि मैं कुछ 12 बजे... वहा से नगर पहुचि दोपहर को 1.5 .... पता चला कि रिक्शा वाला बहोत सारे चार्जस ले रहा था सिर्फ़ 4 किलो मीटर जाने के ...ट्रेक करके आए थे और 12 किलो मीटर तो यू ही चल देते थे...सोचा.. चल लेती हू ... इतना ही तो है..

....सो शुरू किया चलना ...और चढ़ना.....काफ़ी सीधी चढ़ाई थी ... सो थोड़ी देर लगी पर 2.30 तक मैं पहुच गई उपर.... मेरे पास सिर्फ़ 4 बजे तक का टाइम था ... जिसमे मुझे आर्ट गलेरी भी देखनी थी और वापस 4 किलो मीटर नीचे जाना था.... पैदल.

खाना तो खाया नही था .... फिर भी शांति से सारे पेंटिंग्स देखे ... हिमालय के प्यार में लोग क्या क्या कर सकते है ये महसूस किया उसे देखते हुए ..... मुश्किल से 20-30 लोग थे उस वक्त वहा ....ज़्यादातर प्राइवेट कार करके आए थे....और इतने खूबसूरत पेंटिंग्स देखके मेरी सारी थकान उतर गई ... हिमालय के पर्वतो को काफ़ी खूबसूरती ढाला था रंगो मे.... बाहर निकली तो पता चला कि बिना किसी पॅसेंजर को लिए कोई रिक्शा वाला उपर तक आता नहि...तो या तो मुझे किसी रिक्शा का इंतज़ार करना था या फिर चलना शुरू करना था.. नीचे 4 बजे मेरी बस आके चली जाने वाली थी... और मेरी लास्ट बस बेस कॅंप के लिए कुल्लू से 5.30 कि थी .... सो मैने चलना शुरू किया... नीचे आकर पता चला 4.15 हो गये थे तो बस चली गई थी....

मुझे झटका सा लगा...पता चला कि अब मुझे अगले स्टेशन पर जो कि कुछ 5 किलो मीटर पर था...वहा जाके दूसरी बस मिल सकती है कुलु कि लिए...जहा से मुझे फिर कॅंप कि आखरी बस मिल जाएगी....अगर वो बस छूट गई तो मुझे रात कही कुल्लू मे बितानी पड़ेगी...जिसके लिए मैं कतई तैयार नही थी...सो मैने वहा रिक्शा वाले को पूछा...सबने मना कर दिय....सिर्फ एक रिक्शा वाले को नही पूछा...क्यूकी.. उसकी आँखे एकदम भूरी थी...और बंदा भी कुछ अजीब सा लग रहा था...तो मुझे थोड़ा डर लगा....खाना भी नही खाया था और अब चलने कि भी ताक़त नही थी....ज़्यादा सोचने का वक्त नही था मेरे पास....और वही एक बंदा लेके जाने को तैयार था....उसने पूछा सामने से...कुछ सोचा मैने और फिर बैठ गई रिक्शा मे....

सच कहु इतना ज़ोर से दिल कभी नही धड़का...ट्रेक पर 4 किलो मीटर बीच जंगल में बिना किसी साथी के चलने का डर नही लगा था मुझे....पर यहा सिर्फ़ एक भूरी आँखो वाले रिक्शा वाले से डर रही थी मैं... जाने कैसा हो...उसने रिक्शा स्टार्ट क़ी ...मुझसे बाते करने कि कोशिश करने लगा ...और मे हो सके उतने छोटे आन्सर्स देती रही....

वहा YHAI काफ़ी फेमस है अपने ट्रेक्स के लिए .. वहा के लोग काफ़ी रेस्पेक्ट देते है...तो बातो बातो में उसने जान लिया कि मैं YHAI कि ट्रेकर हू...पूछा आपको तो कसोल बेस कॅंप जाना होगा .. मैने कहा हा... तो ऑटो वाले ने कहा कि आपकी कुल्लू वाली बस तो निकल जाएगी....आप कुल्लू पहुचोगी तब तक.... मेरी हालत तो देखने को बनती थी .... पहाड़ी इलाक़ा था ... आधा जंगल ही था .... रास्ता बिल्कुल सुनसान था ... कहीसे कोई आता जाता नही था .... और नीचे क़ी तरफ जाना था तो काफ़ी शांति से ऑटो चला रहा था वो... उसे शायद पता चल गया था कि मैं उसको टालने क़ी कोशिश कर रही हू...

अचानक एक टर्न के पास...एक छोटे से गॅरेज के आगे उसने अपनी ऑटो थमा दी.... मुझे वैसे ही देर हो रही थी.. और वो बंदा आरामसे अंदर जाके किसीसे कुछ बात करने लगा...आप सोच सकते हो कैसा हुआ होगा ... इतनी बड़ी जंगल जैसी जगह पर कोई प्राणी आ जाए तो जितना डर नही लगता उससे ज़्यादा मुझे डर लग रहा था..और चुपचाप बैठे रहने के अलावा मेरे पास कोई चारा नही था..मैं वही चुपचाप बैठी रही....अचानक वो बंदा अपने साथ एक देहाती औरत और उसके बच्चे को साथ ले आया... मुझे कहा कि ये भी अपने साथ चलेंगे...चलेगा ना....मैने चैन कि सांस ली...खुशी से कहा क्यू नही....फिर थोड़ी देर उसने कुछ बाते कि वो औरतसे...फिर वापस मुझसे बाते शुरू क़ी.... अब मेरा डर कम हो गया था...उसने फिर तो जो ऑटो भगाया...मुझे वो रेस से कम नही लगा .....मुझसे कहा ...कि आप चिंता मत कीजिए ...मैं आपको बस मे बिठा दूँगा और ड्राइवर को बोल दूँगा कि आपको दूसरी बस मे रास्ते मे ही बिठा दे....अब क़ी जो बस जाने वाली थी उसका ड्राइवर उसकी पहेचन वाला था...मेरी तो जान निकल रही थी... आगे वाला वो गाँव आया तो बिचमे एक जगह फटाफट वो देहाती औरत को उतार कर सीधा बस डीपो के अंदर रिक्शा ले लिया...जहा बस खड़ी थी कुल्लू के लिए...मुझे कहा आप पहेले बस मे चले जाओ फिर पैसे देना... और उसने वही से चिल्लाकर ड्राइवर को बोल दिया कि मुझे कसोल कि बस मे बिठा दे... बस जाने क़ी तैयारी में ही थी ... तो मैने जल्दी से उनको पैसे थमा दिए और भाग के बस मे चली गई ... फिर याद आया कि उस बंदे को मैने थॅंक्स तक नही किया...

बस ड्राइवर ने भी काफ़ी हेल्प कि...कुल्लू मे आते ही सामने से आने वाली सारी बस चेक कर रहा था कि मेरी बस जा तो नही रही... और सामने ही बस आई...उसने खिड़की से सर निकल कर बस वाले को रोका और मुझे रास्ते मे ही बस पकड़वाई जो क़ी लास्ट बस थी कसोल के लिए....और रात को 9 बजे बेस कॅंप पहुचि.....

कसोल क़ी बस में बैठ कर पूरे रास्ते मैं यही सोचती रही क़ी उस बंदे का क्या गुनाह था जो मैने उस पर भरोसा नही किया...वो कभी पहेले मुझसे मिला नही था...ना किसीने मुझे उसके बारे मे कुछ कहा था क़ी वो ऐसा है वैसा है...फिर मैने क्यू मान लिया क़ी वो ऐसा वैसा होगा...और सबसे बुरी बात क़ी वो समझ पाया था ये बात...तभी उसने बेवजह वो देहाती औरत को साथ लिया था...ताकि मैं आरामसे बैठ सकु वहाँ...मुझे बहोत शर्म आ रही थी...उसने कितनी मासूमियत से बिना किसी वजह मेरी हेल्प क़ी थी.... और मे बस .....ऐसे ही.... अपने किसी दूसरे अनुभव क़ी वजह से उस पर भरोसा नही कर रही थी...आज तक ये अफ़सोस है मुझे...क़ी मैं उस बंदे को थॅंक्स तक नही कहे पाई...सिर्फ़ इस लिए नही क़ी उसने मुझे मेरी उस दिन क़ी मंज़िल तक पहुचनाए मे मदद क़ी पर इस लिए भी उस दिन मैने जिंदगी मे वापस भरोसा करना सीखा...जो मैं शायद भूल गई थी....

उसके बाद सरप्राइसिंगली मैं और दो बार वही जगह जाके आई...हर बार मेरी आँखे उसे ढूंढी रही क़ी मैं उसे कह सकु...कि आज भी बस उसी वजह से मेरा भरोसे पर का भरोसा कायम है...कुछ अंजान लोग अपनो से बढ़कर कुछ दे जाते है.

Saturday, June 28, 2008

~~~ एक छोटे से सफ़र में......~~~

कुछ साल पहले की बात है…..किसी काम से मैं अजमेर जा
रही थी… आहएमदाबादसे ट्रेन में जाना था….शाम की ट्रेन थी जो मुझे रात को
करीब 1.30 बजे अजमेर पहुचने वाली थी… अकेले इतना लंबा सफ़र मैं पहली
बार कर रही थी… पर काफ़ी खुश थी क्योकि कई महीनो से अपने लिए वक्त नही
मिल पा रहा था…और अब ट्रेन में पूरे 8 घंटे सिर्फ़ मेरे अपने थे…. सोचा था
खुद से अच्छी मुलाकात होगी….

ट्रेन आई और जैसे ही अपनी सीट ढूंढी मैने….मूड
खराब सा हो गया…..एक भरा पूरा सिंधी फॅमिली था… जिसमे जिट्नी बड़े थे उससे ज़्यादा बच्चे थे
…..और जो बड़े थे वो बच्चो को बड़ा कहलवाए वैसे थे…..सिर्फ़ उन्ही की आवाज़े
सुनाई दे रही थी …. मेरे बाजू में एक मोटी सी आंटी और दूसरी और एक दादाजी
बैठे थे….जिनका नॉनस्टॉप ऑडियो चालू था…..हर 5 मीं पर मुझको दोनो में से
किसी का हाथ तो किसी की कोहनी लगती और सॉरी सुनने को मिलता……वैसे ही सॉरी
शब्द से मुझे कुछ नफ़रत सी है…जब सुनना पड़े तो …

आधे घंटे में मैं पक गई पूरी….ऐसा लगा किसी ने मुझे
आलू समझ कर प्रेशर कुक्कर में डाल दिया है…. ट्रेन के कोच का एक
चक्कर लगाया….देखा की आगे वाले कम्पार्टमेंट में ही एक साइड सीट खाली पड़ी
है.. टिकट चेकर के आते ही मैने उससे बात की …..वो समझ गया
की मैं बुरी फसि हू उस फॅमिली के बीच में….मुझे उसने शिफ्ट कर दिया …. जहा
मुझे सीट दिखी थी….फॉर्चुनेट्ली सामने की सीट पर कोई नही था….तो पूरी साइड
सीट मेरी ही थी…. हमेशा से मेरी पसंदीदा सीट…

वो जो कम्पार्टमेंट था उसमे और उसके आगे कुल मिलके 28 बच्चो का ग्रूप था…. कराटे के कोई कॉंपिटेशन में वो
लोग हिस्सा लेने देल्ही जा रहे थे…..सब मुजसे थोड़े से छोटे थे…थोड़ी देर उनकी आवाज़े सुनती रही ….फिर मैने खिड़के से अपना नाता जोड़ लिया……उस वक्त ज़ो दिखा...जो देखा ...ज़ो ख़याल आए …ज़ो महसूस किया वही ट्रेन में बैठे बैठे … ….जिससे पल भर के लिए नाता जुड़ा …. जिसने पल भर में ही दिल में जगह बना ली…उस सब ख़यालो ने शब्दो का रूप पकड़ा ….आधे अधूरे शब्दो का……. कोरे काग़ज़ कुछ ही देर में महेकने से लगे…..कुछ महक उन खुश्बू की आपके लिए…..ज़ो लिखा था वो गुजराती में था…कुछ हिस्सा यहा पर हिन्दी में वापस लिख रही हू ….

तबले के लय जैसी ट्रेन के चलने की आवाज़ … पत्थरो से आता है जैसे संगीत….एक
अकेली लड़की का हो कोई गीत….गुलमहोर की लाल लाल उदासी….खेतो पर जुक्ति हुई
शाम की सुनहरी सी धूप…हरे पेड़ो के नीचे चुपचाप बैठा हुआ हवा का एक
ज़ौका…पारिजात की पंखुड़ी जैसे बिखरे पड़े हुए कुछ बादल के टुकड़े….रुठ्के
गया होगा सूरज यहा से जो मिट्टी काली पड़ गई है यहा….कही से आई है पहचानी
सी खुश्बू……अरे ये तो चने की दाल वाला आया!!! …. कच्चे आम की भीनी भीनी
खुश्बू…खिड़की से बाहर बैशाखी धूप में खिला हुआ आम का पेड़…..हरे काले से
पत्तो के बीच में से मुस्कुराती है मोज़ार….पीले पीले फुलो से भरे हुए अमलतास
के पेड़….इंतज़ार में है की कब हवा का ज़ौका आए और वो बरसे…..किसी का कही पर जब मन तरसे….



धरती पर बिछी है एक पीली चादर सी……..अरे! गेंदे के फुलो
का खेत….बागीचा नही….एक अंजना सा गाव….पुलिया से जाते वक्त ट्रेन की बदलती
है आवाज़…नीचे है एक नदी….पानी सिर्फ़ नाम का……हमारे नही काम का…. आए
है कुछ खेत….खेत में पीपल का पेड़….पेड़ के नीचे लकड़ी का
ढाँचा….अकेला…..खेत्में है ना कुछ और ना कोई ….बाजू वाले कम्पार्टमेंट से
सुनाई दी है किसी की गुनगुनाहट ….कोई लड़का सुना रहा है लड़की को कोई गीत…

नज़दीक आ रहा है कोई स्टेशन…..दूसरी ट्रेन की लंबी
सी सिटी…..जैसे की दो सहेलियो का हुआ हो मिलन…..पूर्णिमा के खिले हुए चाँद
जैसा नज़र आता है सूरज….खाली पड़ी हुई है बेंच….मेरे सामने है जैसे
खाली कोई सीट…..सिंधी का रोता हुआ बच्चा…..खेतो से गुज़रता है कोई
रास्ता…..सुनहरी धूप हो रही है गुम…..और खुल रही है कोई कविता की भूली
बिसरी पंक्तिया ….किलो मिटेर दिखता हुआ पत्थर…..धन्तुरे के फूल, छोटे से पेड़ के
नीचे छोटा सा मंदिर…गद्दे पर लकड़ी मरके धूल उड़ाता कोई बुढ्ढा….बेंच पर
सर टीकाके सोया है कोई आदमी…कभी कुछ भरने को काम आई होगा वो टूटा हुआ
गमला…..हवा में उड़ता हुआ खबर का अख़बारी टुकड़ा…..

अचानक चमकी है बिजली……और पहली बारिश….ओफ्फ ….. मैं तो
ट्रेन में हू….. ठंडी हावके ठंडे ठंडे ज़ौके…. आ गया
है मेरा स्टेशन ….. हल्की हल्की बरसाती
बारिश ….स्टेशन के बाहर चौक मैं दो पेड़…..रात के अंधेरे में चमकते
हुए…..उस पर है हज़ारो के तादाद में तोते….जैसे के समाधि लगाई हो उन्होने
…..लगता है की तोते का हो पेड़…..हरा ..हरा…..भरा भरा…

Friday, June 20, 2008

~~~वापस तो आना है .... ~~~

वादा किया था की 20 दिन में वापस अवँगी … पर 20 के कुछ 30 से ज़्यादा दिन हो गये… इस बार हाथो की लकीरो में शायद कुछ ज़्यादा ही वक्त लिखा था हिमालय के पास जाने का और बार बार जाने का….

सरपास से ही शुरू करती हू मैं… अभी तक के जीतने ट्रेक किए उसमे जो कुछ बाकी था … उसका काफ़ी कुछ इस ट्रेक में मेहूसुस करने को मिल गया… पहुचते ही फिर से वही गोद मिली जो चार साल पहले महसूस की थी … कसोल .. हमारे यूथ हॉस्टिल का बेस कॅंप … जो की पड़ता है भुंतर के पास…भुंतर कुल्लू जाते वक्त रास्ते में ही पड़ता है… वहाँ से बस लेकर हम एक – डेढ़ घंटे में पहुचे कसोल … कसोल के बारे में कहु तो वो एक जैसे रहस्यमयी कस्बा है … एक ही रोड पर गाँव शुरू होते ही ख़तम हो जाता है…..शिखो का गुरुद्वारा जहा पर गर्म पानी का ज़रना बहता है …मणीकरण…वो वही से 4 किलोमीटर की दूरी पर है….इसलिए थोड़ा बहोत लोग जानते है कसोल के बारे में …. मेरी पसंदीदा जगह है …..



हमारा बेस कॅंप कसोल मैं से गुज़रती पार्वती नदी के किनारे पर है…सुबह की ठंडी हवा चल रही है … और बेस कॅंप के पास आते ही …किसी नर्सरी स्कूल की रिसेस में जैसे छोटे बच्चो की किलकरियो की आवाज़ आती है….नदी की किलकरी सुनाई देती है ….बहाव इतना तेज है की अगर अपल्क देखा किया तो भी साथ बहा ले लाएगा…अभी तक के सारे ट्रेक का सबसे अच्छा बेस कॅंप भी यही है….

शुरुआती फॉरमॅलिटीस पूरी करने के बाद हमे हमारे टेंट दिए जाते है…कुछ नये लोगो से पहेचान होती है …. अलग राज्य , अलग शहर , अलग बोली और अलग संस्कृति की भी साथ में पहेचान मिलती है….कहा से हो आप? अच्छा पुणे से? वो तो पास है …. बस बारा – एक घंटो का सफ़र ….ऐसे बाते चलती रहती है …..




वही ठहराना है दो दिन … और शेड्यूल कोई हेक्टिक भी नही है…किसी बात की जल्दी नही है और कोई काम बाकी नही है…..मन भागता है कही, पर - जाने को कुछ नही है….पहले दिन सेट नही होता मन … लगता है जैसे कही टाइम वेस्ट तो नही हो रहा? दूसरे दिन से वो शांति की आदत हो जाती है….और फिर धीरे धीरे वही शांति नस नस में समा जाती है….

3 तीन के बाद हमारा ट्रेक शुरू होता है….एक बस हमे हमारे ट्रेक रूट पर छोड़ जाती है…उतरना है वहाँ से ….कुछ लोगो ने लकड़ी का सहारा ले लिया है …और आसमान को देखते हुए हमारा ट्रेक शुरू होता है… टेढ़े मेढ़े रास्तो से निकल कर हम चलते जाते है…एक परबत को उतर के सामने वाले परबत के पीछे की और पहुचना है बाकी …..उसके उपर तक जाना है बस…कुछ 1000-1500 फ्ट की चढ़ाई और 6 किलोमीटर चलना है…हो जाएगा …..बस बारिश ना हो….पहाड़ो पर बारिश से मुझे अक्सर डर हैऔर … अगर चलना बाकी हो तो ……

लंच पॉइंट नज़दीक है अब….पर हल्की हल्की बूंदे बरस रही है…लोग एंजाय कर रहे है…पहली बारिश है …. और हम भी 44 डेग्रीसे अभी 24 डिग्री में आए हुए है…तो अच्छा लग रहा है…थोड़ी देर में सारे बादल पूरी वादी को घेर लेते है…10 कदम आगे कौन है पता नही चल रहा…सबने अपनी बरसाती ओढ रखी है …और अब बारिश भी काफ़ी तेज हो गई है …..हम वही ठहर जाते है और थोड़ा कुछ खा लेते है….बारिश के रुकने का इंतज़ार नही किया जा सकता …इसलिए चलना ज़रूरी है…चल देते है….आगे की पहाड़ी के चोटी के पास ही हमारा कॅंप लगा है….



ह्म्‍म्म….अब ठीक है… आस पास की चोटियो पर गिरा बर्फ जैसे की बुला रहा है ….वहा से आती ठंडी लहरे कंपा जाती है…..उसमे हल्की सी धूप ….वा … और क्या कहेना….

आगे के दिन चढ़ाई है पूरी …..कही उतरना…कही चढ़ना…कही बड़े बड़े पत्थरो के बीच से…कही बर्फ से जमे किसी झरने के उपर से….कही भीगे पत्तो के उपर से….कही गीली मिट्टी पर पाव डालके…कही बर्फ में अपने निशा को पिघलता देखते हुए ….कही हवासे खुद को बचाते , छिपाते चलते जाते है ....



बारिश….स्नो फॉल….स्नो स्टोर्म…सब मिलता है यहा…जब भी एक्सपेक्ट ना करो… पर अच्छा लगता है …. पता चलता है की जिंदगी से ज़्यादा अनप्रिडिक्टबल कुछ भी नही …सर्प्राइज़िंग भी कुछ भी नही ….जहा रूलाती है वही हसा देती है.ऽउर जहा हसती है वही रुला देती है…जहा लगा की सब ख़तम …वही नई शुरआत होती है ……. और हर नई शुरुआतपता पीछे कोई कुछ ख़तम हुआ सा होता है ...



बर्फ को …..देखते बस एक ही ख़याल आता है …. काश की जिंदगी को हम ऐसा बना सकते…..आज अभी पड़ी बर्फ जैसा…..ताज़ा ….



सरपास पे इस बार अच्छी बर्फ है…और हमारा तो स्वागत ही बर्फ ने खुद आकर किया है … चारो और बिना दाग वाली बर्फ बिखरी पड़ी है….और लगता है जैसे की कोई कदम रखेगा तो मैली हो जाएगी…..बिल्कुल शांति है…कोई पंछी तक की आवाज़ नही ….. सब खुशी से चुप से हो गये है ……13500 फीटट पर हवा भी महसूस करने लायक होती है...

बर्फ में जाओ और स्लाइड ना करो तो बर्फ में जाना बेमतलब कहा जाता है….इसलिए हमारे लिए वहाँ 4-5 स्लाइड तैयार है…बर्फ से जब बाहर आते है….तो अपने साथ ढेरो बर्फ ले आते है …..



वापस तो आना है ....तो समेटने की कोशिश करते है ..... बर्फ को काश ले आती ...पर पिघल ही जाती है जब भी लाओ.. जितनी लाओ……और फिर अपने वॉटरमार्क्स जैसे छोड़ जाती है यादो के रूप में…..कुछ वॉटरमार्क्स की लिंक दे रही हू….आपको भी बर्फ मुबारक हो!!


http://www.flickr.com/photos/meetsall/sets/72157605115764860/

Sunday, April 27, 2008

सरपास - फिर से कदम उसी और...

हिमालय

ये नाम जब भी लेती हू ऐसा लगता है जैसे ईश्वर का नाम लिया हो और उसे महेसुस किया हो !! कई बार ऐसा होता है कि कुछ जगह हमे अक्सर अपने पास खींच लेती है ... हिमालय के जब पहली बार बहोत दूर से दर्शन हुए थे ; पता नही ऐसा क्या हुआ कि तय कर लिया था कि एक दिन वहाँ ज़रूर जाउन्गि... और बस दूसरे ही साल मैं निकल पड़ी हिमालय कि और..... और तब से लेकर आज तक उसके साथ ऐसा रिश्ता बन गया है कि छूट -ता नही और मैं छोड़ना भी नही चाहती....

यूँ ही घूमना फिरना मुझे ज़्यादा नही पसंद..... उसमे भी उन जगहो पर जाना तो बिल्कुल नही पसंद जहा अक्सर लोग भीड़ लगा के खड़े हो जाते है जैसे कि वहाँ कोई अजूबा लगा हो !!! ... किसी भी हिल स्टेशन पर जाओ ... आजकल वहाँ बस भीड़ और भीड़ नज़र आती है..... 2004 में जब पहली बार हिमालय पर गई तो ऐसा लगा कि कभी वापस आना ही नही चाहिए.....

सरपास शिवालिक घाटी में आया हुआ एक परबत है .... जिसके बीच में झील है ... जो बर्फ के गिरने पर जम के खुद भी बर्फ बन जाती है...... और जब हम सरपास ट्रेक के लिए जाते है तो उस जमी हुई झील को पार करना होता है..... यानी कि हमारा गाइड कुछ दूरी तय करने पर चेक करता है कि आयेज बर्फ इतनी जमी हुई है कि 50-60 लोग उस पर से होकर गुज़र सके....... वरना कई बार ऐसा होता है कि आप बर्फ समझ कर चलने जाओ और वाहा पानी हो .... हर तरफ बर्फ कि चादर होती है ... ऐसा लगता है कि चाँद जैसे नहा के सो रहा है वहाँ ..... तारे कुछ यू चमकते है जैसे कि आईना देख के मुस्कुरा दिया हो किसी प्रियतमाने .... हिमालय कि रात बहोत खूबसूरत होती है .....अगर वो जॅंगल में हो तो भी और बर्फ के बीच हो तो भी.... जॅंगल में बस ऐसा लगता है कि कुछ ऱुशिमुनी बैठकर आने वाले दिनो कि चर्चा कर रहे है... पत्तो के बीच से होकर जो हवा गुजराती है तो लगता है कि ईश्वर का कोई दूत आके संदेशा दे गया हो...... और गहरी होती पलको पर नींद कुछ यूँ आती है कि जैसे अमावस का अंधेरा छा गया हो !!



रात से ज़्यादा खूबसूरत होती है सुबह......सुबह को सूरज निकलता है तो लगता है कि जैसे सारे पहाड़ अंगड़ाई लेते हुए खड़े है ... पूछ रहे है कि आज क्या करना है पूरे दिन …. बादलो को रास्ता दिखाना है या रोक लेना है उन्हे कुछ पल के लिए….. रात को सारे परबत जैसे और करीब आ जाते है हमारे…….फुसफुसाते है और जाने क्या बतियाते है हम से……शायद जो समझ सकता होगा उनकी बात वो ऋषि बन जाता होगा और फिर वही ठहर जाता होगा….

वहाँ चलते वक्त लगता है जैसे कि अभी सीखे हम चलना..….. वहाँ जाकर सारे अभिमान गिर जाते है रस्तो पर…. ट्रेक के बारे मे लिखे तो एक दो दिन के बाद सबसे पहले कट होती है इलेक्ट्रीसिटी…..यानी कि बिजली बंद….यानी कि सारे फोन भी बंद … मतलब दुनिया के आधे कम्यूनिकेशन का वही अंत…..(वैसे कभी कभी अखरता है ये अब) …. 3-4 दिन के बाद पोल्यूशन कि भी कमी हो जाती है….. थोडा और उपर जाओ तो हवा भी रॅशन में मिलती है जैसे…पर उसके सामने मिलती है….अदभुत शांति….. बेपनाह खूबसूरती……जिनको छोड़ कही जाने का मन नही करता……. कई बार लगता है कि हम ईश्वर कि गोद में बैठे है……

वापस आना…. सबसे मुश्किल होता है…… बियास और पार्वती नदी जैसे हमे रोकती रहती है…साथ साथ चलती है.. कहती है कि रुक जाओ बस…….मैं हर बार वादा करती हू वापस आने का तब जाके कही छोड़ती है भीगी आँखोसे……..और वादे निभाए बिना चलता नही……..जाना पड़ता है….जा रही हू ……20 दिन बाद इसी ट्रेक के बहोत सारी यादे लेकर आ रही हू वापस इसी ब्लॉग पर…..तब तक….आप इंतज़ार कीजिए…..